Sunday, August 17, 2008

पादरी और पत्नी (प्यारी ममेरी ननद के लिए)

पत्नी ने अंगुली उठाई,

यह उच्छृखंलता घुन है,

कि सभ्य-समाज की दुहाई देनेवाले,

भितरघात की तरह उसकी जड़ मत खोदो,

रिश्ते जीवन के सुलझाव के लिए हैं,

मान करो उनका,

सहजता से निभा नहीं पाते,

तो कोशिश करो, नियंत्रण के तहत,

धीमे-धीमे आदत पड़ जाएगी,

हजारों साल पहले की शुरुआत और उम्मीद

बेकार नहीं जाएगी

चचेरी-ममेरी-मौसेरी बहनें भी बहनें हैं,

घिनौना छल है राखी बंधी कलाई

देह पर रेंगती अंगुलियां

नासमझ छोटे बच्चे-बच्चियां,

फरिश्ते-से,कोरे-कोमल मन

लाचार, मजबूर कामवालियां,

बखान से घबराई सहकर्मिणियां

विश्वास से बंधे आस-पड़ोस।



लगातार दिनोंदिन, साल दर साल

चलती रहीं मनाही,सख्ती,

अलगाव की असफल कोशिशें।

फिर रिक्त स्थान, कई चोर दरवाजे,

जिसमें तराशा जाने लगा 'चुप्पी भरा गुस्सा',

रात का पर्याय रजनी की चौकठ,

भीतर चांद-तारों से टकी चांदनी,

फैंसी ड्रैसों की भरमार,

लबादों की अदला-बदली,

ड्रकुला चाहे तो पादरी बन जाए,

फिर झक सफेद सुबह।


अब सुबह कुछ ऐसी होने लगी-


लोग-बाग पत्नी से घबड़ाकर भागने लगे,


कानाफूसी करने लगे।


'बुरी संगत में फंसे' पति की निजात की कामना करने लगे,


पादरी का प्रवचन कुछ मास से जारी है,


भिक्षुणियों का चढ़ावा चोर दरवाजे से आ रहा है


पादरी की पत्नी का इतना भर अर्ज है,

कि पादरी आत्मा बदलते चोला की जगह,

पत्थर पर उगे दूब की तरह,

आसान होता जुड़ा जीवन, घर-समाज.


( सधा हुआ 'गुस्सा और चुप्पी' की तराश का विवरण आप भरोसा.ब्लॉगस्पॉट.कॉम पर देख सकते हैं।इस कविता का कर्णप्रिय पाठ जिरह.ब्लॉगस्पॉट.कॉम पर सुन सकते हैं. आशा है कि आप इस जुगलबंदी को अपनी शोध का विषय नहीं बनाएंगे.)





































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































सभ्यता और समा़ज की जड़ का

Sunday, December 2, 2007

मां का कोना

उसकी हड्डियां बेहद कमजोर हो चुकी थीं- थोड़ा दबाब पड़ते ही टूटने की हद तक। अपनी ज़िंदगी के आखिरी आठ वर्ष वह खुद खड़ी होकर चलने में अक्षम थी। छड़ी, दीवार, कुर्सी या मेज के सहारे रेंगती हुई इधर से उधर जाती, लेकिन अंततः व्हील चेयर के सिवा कोई चारा न रहा। वह भी लंबे समय तक उनका साथ नहीं दे सकी और आखिरकार वह अपने कमरे के एक चार गुणा छह के बिस्तर पर सिमट गई।
वैसे भी इन आठ वर्षों से पहले बावन वर्षीय आठ बच्चों की मां का मध्यवर्गीय परिवार में फैलाव ही कितना था? समय बीतने के साथ मायका छूटता गया। सहेलियां तो ब्याह के साथ ही छूट गई थीं और न जाने कौन किस डोर से बंधी किस छोर पहुंच चुकी थीं। फिर बड़े होते बच्चों, बूढ़े होते बड़ों और सठियाते पति के साथ घर की जिम्मेदारियों ने मां की आवाजाही को भी कम कर दिया था। मुहल्ले-रिश्तेदारों के घर भी आना-जाना तीज-त्योहारों, मरने-जीने तक ही सिमटता गया था। अंत में घर के अंदर भी उसकी दिनचर्या आंगन-रसोई के बीच ही सिकुड़ कर रह गई। छत पर जाकर उन्मुक्त गगन को निहारने के न तो उसके संस्कार थे न ही फुरसत। दोपहर को कपड़े धोए, सूखने के लिए फैलाए और शाम को झटपट उन्हें समेटा- छत से उसका वास्ता इतना भर ही था। मन में सिर्फ रसोई और आंगन ही बसे थे।
और रसोई-आंगन का दायरा भी कितना। बच्चों, पति, बुजुर्गों तक। दूध हो या फल- पहले उन्हें ही। दाल हो या मिठाई- मां को बचने पर ही। सब्जी थोड़ी। मांस-अंडा कभी-कभी। मायका छूटा, सहेलियां छूटीं तो जीवन का संगीत कितना बनता? जब जीवन में संगीत नहीं तो गीत कैसे बनते? उस पर जेठ-ससुर का लिहाज। सो पहले-पहल गुसलखाने में गुनगुनाती रही। धीमे-धीमे गुनगुनाहट बेआवाज आंसुओं में बदलती गई। लाल डोरियाई आंखों की परवाह किसे थी। गुसलखाने में मां को काफी वक्त लग जाता था। घर के सदस्यों के कपड़े धुल जाते तो सिर्फ अपने कपड़े धोने में इतना वक्त! मां का अपना तौलिया कभी नहीं रहा कि शरीर पोछने में वक्त लगे। भींगे बालों की अर्द्धचंद्राकार धारी उसके ब्लाउज के पीछे स्थायी तौर पर बनी रहती। फिर देर की वजह?
दरअसल गुसलखाना ही मां का आख़िरी कोना था जहां वह मुस्कुराती, शरमाती, अंगुलियां चटखाती, फर्श पर पैर रगड़ती, बेआवाज़ न जाने किससे बतियाती। फिर अचानक जैसे ध्यान टूटता, और वह जल्दी-जल्दी पानी उंडेल कर निकल आती। गुसलखाने में मां का आत्मीय एकालाप खुद को बचाए रखने की एक आखिरी कोशिश था। यह कोशिश धीमी होकर कब खत्म हो गई, शायद उसे भी इसका इल्म न हो सका। बस, अब मां जल्दी से नहा कर निकल आती थी। ज्यादा देर पानी में रहने से उसकी हड्डियों में कनकनाहट शुरू होने लगी थी।
असल में मन की कनकनाहट हड्डियों तक चली आई थी। जीवन का संगीत बिखर रहा था। गीत की लय टूट रही थी। वहां अकेलेपन के अनंत पल थे। इन पलों में जीवन का विकास नहीं, जीवंतता का ह्रास छिपा था। डॉक्टर मां से कहते थे, मन मज़बूत करेंगी तो ज़रूर चल लेंगी।
लेकिन मां के मन का वजूद था कहां, जिसे वह मज़बूत करती? वह आम स्त्रियों की तरह ही थी जिनके मन पर उनके जन्मते ही बंदिशों की ज़ंजीरें लगनी शुरू हो जाती हैं और उनके मां बनते-बनते बस ज़ंजीरें ही रह जाती हैं, मन ग़ायब हो जाता है। और घर के कोल्हू में रात-दिन पिसता रह जाता है उनका शरीर। वास्तव में ऐसे ही मूक-बधिर स्त्री शरीर की कामना करते हैं हमारे ज्यादातर परिवार और उनसे बना हमारा समाज। समाज के इस आधे हिस्से की धार को कुंद करने का सिलसिला बेआवाज़ चलता रहता है। इस सिलसिले में मां, उसकी बेटी, फिर उसकी बेटी और फिर उसकी भी बेटी गुंथती चली जाती है, जिसमें अपवादों के लिए कोई जगह और प्रतिष्ठा नहीं, बल्कि उपेक्षा, अपयश, बेरहमी, एकाकीपन आदि के अंतहीन चाबुक हैं।
हालांकि अचरज ही है कि इस हिस्से की धार नदी की धार की तरह चट्टानों, पहाड़ों. पत्थरों को काटती अंधेरी सीलन भरी गुफाओं को भेदती जब तब फूट पड़ती है। आशा है कि यहां वहां निकलने, फूटने वाला झरना कभी सैलाब की शक्ल लेगा।

Saturday, October 6, 2007

जीवन के कलाकार

'बस इसी की कमी थी, लो आ गई, दू गो बिस्कुल इसको भी दे दो,' रीता जी के कहते ही महफ़िल में बैठी सभी महिलाओं का ध्यान उसकी ओर चला जाता। किसी के पेट में गुदगुदी होती, किसी के चेहरे पर मुस्कुराहट आती, किसी को तनाव से राहत मिलती। इसी के साथ वह दो बिस्किट चट कर जाती। उसे तो बस इतना ही चाहिए। और इसके साथ हमारी सोसाइटी में रहने वाली अनाथ कुतिया हमारी महफ़िल में शामिल हो जाती।
जाड़े की दोपहर में अक्सर हम महिलाएं खुले में इकट्ठा होतीं, प्यालियां खनकातीं, कुरमुरे बोलते, धूप की गुनगुनाहट में गीतों के बोल तैरते, हंसी-मज़ाक के फव्वारे छूटते। इन्हीं के बीच रीता जी दिखातीं, 'देखो-देखो तो, कैसे सटे-सटे चल रहा है मैना का जोड़ा।' सब देखते, एक छोटी सी चुप्पी टपकती, हौले से हरेक के भीतर प्रेम की सुरसुरी पसरती, इनसे बेख़बर चंचल पंछियों का जोड़ा फुर्र हो जाता। कई जोड़ी आंखें दूर तक निहारती रह जातीं कि रीता जी टोकतीं, 'लौटो रे, सबके वो अब लौटने वाले हैं, और किसको-किसको सब्ज़ी लाना है, जल्दी चलो।'
एक टोली सब्ज़ी वाले के यहां पहुंच जाती। फिर बुदबुदाते उनके बोल, 'आज सब्जी बड़ा ताज़ा लग रहा है। आज तो खूब दाम बढाकर बोलोगे। मटर कैसे... दस का डेढ़ है सब जगह, और गाजर...आठ, धत्त, पांच में कोई पूछ नहीं रहा है। अच्छा बताओ कि तराजू ठीक कराए कि नहीं। और जल्दी करो....तुम्हारा भाई नहीं दिख रहा....क्या हुआ, बीमार है, खांसी ज़ुकाम, अभी डब्बा में थोड़ा आर्युवेदिक दवा और मधु भेजते हैं। दोनों मिलाकर सुबह-शाम सप्ताह भर एक-एक चम्मच खिलाना, ठीक हो जाएगा। फट से तौलो सबकी सब्जी....दवा भेजते हैं अभी...। चलो-चलो मंदिर के रास्ते से चलते हैं।'
'क्या हाल है पंडीजी, पैर कैसा है आपका, अब दू महीना तो हो ही चला। प्लास्टर काटते ही आधा आराम हो जाएगा, आहिस्ते-आहिस्ते चलते-फिरते सब ठीक हो जाएगा...ऊ लडकिया खाना रोज़ बना रही है ना, कभी कोई ज़रूरत हो तो बेझिझक कहिएगा...। चलो-चलो रहे, तेज़ी से बढो, बिजली बत्ती जलने लगी है...।'
'इतनी जल्दी क्या है रीता जी, देखिए तो सामने से कौन आ रहा है?' 'अईँ, ई तो डॉक्टर त्रिपाठी हैं...क्या हाल है डॉक्टर साहब। बहुत दिन बाद दिखे...लीजिए, हमलोग का इलाज करते-करते खुद बीमार पड़ गए....क्या हुआ था...। ठीक है चलते हैं। चलो-चलो।'
'चलिए।' 'दू मिनट रुको।' 'हां रुक रहे हैं।' रीता जी के आग्रह पर कभी मन से कभी बेमन से हमारा रुकना होता। इस ठहराव की जगह चाहे हम महिलाओं की महफि़ल हो या सड़क। वक़्त चाहे जाड़े की दोपहर हो या गर्मी की शाम। और वजह चाहे मैना का जोड़ा हो या ब्रह्मचारी पंडीजी, सब्जी वाले का तराजू हो या डॉक्टर का स्टेथोस्कोप...सूर्यास्त की सिंदूरी लालिमा हो या किसी वृद्धा की झक सफेद साड़ी...। इन छोटे-छोटे ठहरावों में जीवन के अनंत फैलाव छुपे रहते। वजहें तो सिर्फ खिड़कियां होतीं, जिनके परे कुछ सीधे-सपाट रास्ते होते, कई ऊबड़-खाबड़ पगडंडियां होतीं, अनंत तंग गलियां होतीं...सबकी सब जीवन से लबरेज, जिन्हें चाहें तो देखें, या करें परहेज। परहेज के अपने बहाने हैं तो देखने के अपने जोखिम। और इनके बीच सधे-सधे चलने की अपनी कला।
रीता जी लेखक या कलाकार नहीं हैं। साहित्य की किताबों से भी उनका सरोकार नहीं है, लेकिन रसों के अपने झरने उनके अंदर लगातार फूटते रहते हैं। एक कलम, एक कूंची हर पल उनके हाथों में होती है। उनके शब्द जैसे कानों में संगीत घोलते हैं। कभी किसी का ख़याल रखकर, कभी किसी का हाल पूछकर, कभी हौले से छेड़कर, कभी किसी के बारे में सवाल पूछकर, वे अक्सर याद दिलाती हैं कि असली कला असली रंग, असली रस है इस तरह डूब कर जीने में।
तक़लीफें हैं उनकी ज़िंदगी में। तनाव है उनके मन में। आम तौर पर जो तक़लीफें दूसरों को तोड़तीं, जो तनाव जीवन का रस निचोड़ लेते, उनसे रीता जी बड़ी सरलता से पार पा जातीं। वे जीवन की रसिक बन जातीं। यही रसिकता उनके भीतर एक कलाकार पैदा करती जिसे किसी विधा की ज़रूरत नहीं। दरअसल जिन्हें हम लेखक या कलाकार की तरह पहचानते हैं, वे लोग जीवन के इस रोमांच से, एक तटस्थ दूरी बनाकर चलते हैं। वे अपने आवेगों को शब्दों, रंगों का मायावी जामा पहनाते, संवेदनाओं की नकली खेती करते, यश बटोरते और नामी गिरामी हो जाते हैं। मगर, कलम कूंची के ये कलाकार बिरले ही जीवन के कलाकार होते हैं। जीवन के कलाकार तो जीवन के जोखिम का सामना करने वाले होते हैं- ठेठ बोलने वाले, गंभीरता और शुद्धता के आतंक से परे, अपनत्व से लबालब, नफ़ा-नुक़सान से बेपरवाह। धूप-छांव के बीच की कड़ी, मन के चितेरे-चितेरी। अनंत खुशी के रंगों से भरी होती है इनकी कूंची। जीवन के कैनवास पर उकेरती है जीने की कला। और इस कला में माहिर हैं हमारी रीता जी। लेकिन अपने जादू से बेख़बर, और इस बेख़बरी की भी एक ख़ूबसूरती है। आप भी खोजें ये खूबसूरती, अपने-आप को ऐसे कई कलाकार मिल जाएंगे।

Saturday, September 29, 2007

मेरे तुम्हारे सपने

हमारे मोहल्ले में रहती थीं एक निर्मला देवी। वे मां को भाभी कहतीं ,हम उन्हें बुआ। साझा था उनका और हमारे घर का आंगन, सिवाय उस नीची दीवार के जिसे हम भाई-बहन एक छलांग में पार कर जाते। याद नहीं, मैं उस आंगन में चलना सीखते, ठुमकते-कूदते-फांदते, दौड़ते या नाचते कितनी बार गिरी, छिल आई हथेलियों और घुटनों पर बुआ ने कितनी बार मरहम लगाया। न याद है मुझे बुआ की सूरत, न उनका दुलार।
मेरे जेहन में मेरे बरक्स मां उकेरती रहीं उनकी तस्वीर, उन्नीस-बीस साल की बेहद हंसमुख, दो चोटी वाली निर्मला, जिनसे छींटदार फीतों से नकली चोटी बनवाती मैं। साड़ी-सलवार-कमीज, सरारा-गरारा-कुर्ता-दुपट्टा पहनने वाली निर्मला, उनके सिले झबले-चूनदार-पफ बांहवाली फ्रॉक पहने मैं। उनकी कजरारी आंखों-सा काजल अपनी आंखों में अंजवाती मैं। रोटी सेंकती निर्मला से रोज चीनी भरकर मीठी रोटी बनवाती मैं। पढ़ती निर्मला के पास मुट्ठी में पेंसिल भरकर उल्टी कॉपी में आड़ी-तिरछी लकीरें खींचतीं मैं।.......कई-कई बार मां ने याद किया उन्हें, और हर बार उनके आंचल से मेरे बचपन को जोड़तीं। शायद मैं एक कड़ी थी जिससे मां उनकी याद को बोलती और बोलकर खुद सुनती। निर्मला की स्मृति को कहती-सुनती मेरी मां अक्सर कहीं गुम हो जाती या फिर एक लम्बी सांस के साथ झटपट काम में लग जाती।
अब एक ब्याहता हैं निर्मला देवी। लेकिन ब्याह के बाद उन्हें घर -परिवारवाले, मोहल्लेवाले, या फिर शहरवासी किसी ने नहीं देखा। जबकि ब्याही लड़कियां घूम-घूम आतीं हैं मायके। पति से रुठीं तो, सास- ननद से बाता-बाती हुई तो, तीज-त्यौहार हो तो, भाई को राखी बांधनी या बजरी खिलानी हो तो, मां बीमार है तो, पिता उदास हैं तो, गाय ने बाछी दी तो, खुद मां बनना हो तो.....बात-बात में मायका, जैसे मायका हो कुन्ती का अक्षयपात्र। पर किसी ब्याहता का यह अक्षयपात्र खो जाए तो! तो छिन जाता है उसका बचपन,उसका आंगन- उसके साथ बढ़ते पेड़ और रिश्ते, उसके सगे और सगे-से. या उसके राग-रंग- उसके युवा होते मन की तरंगें- उसकी धुकधुकी बढ़ाने वाले की झलक, अनजाने छू गई अंगुलियों पर पहले स्पर्श की खूशबू या फिर,उसके जीवन का संगीत- मां-पिता का लाड़, भाई-भावज का प्यार-तकरार, पड़ोस-मोहल्ले की लानतें-मलामतें.....। स्नेह के इतने डोर जो हों तो कितना अमीर होता है जीवन। अमीर था कुंवारी निर्मला का भी जीवन। बस निर्मला ने प्रेम के इस ताने- बाने को दिया एक विस्तार। एक फैसला लिया अपने जीवन का, अपने जीवनसाथी का। झनझनाकर टूट पड़े स्नेह के सारे डोर....स्याह हुआ सारा प्रेम-प्रकाश। अंधड़-बौछारें, छुरी-कटारें। एक प्रेम के दीये को बुझाने के लिए एक प्रेम-पुंज का विकराल झंझावात। दीया दूर चला गया झंझावात से बचते, भीषण तूफान खुद में समेटे ।
एक फैसला इतने तूफान। निर्मला जीते-जी भुला दी गईं। निर्मला के मां-पिता ने मान लिया कि इस नाम की उनकी कोई बेटी थी ही नहीं, भाई-बहनों की न थी कोई बहन, र भावजों की कैसी ननद। रिश्तेदारों- मोहल्लेवालों के लिए भागी हुई लड़की। लेकिन याद करतीं मेरी मां, एक औरत की तरह, एक औरत को एक औरत से साझा करते हुए-एक मिसाल, एक विरासत की थाती सौंपते हुए। सपने सजाओ बेटी, फैसले करो। डरो मत। माना कि समाज के बारुदी आडंबर औऱतों के फैसले को चिनगारी ठहराते हर बार, पर अपनी फितरत तय करना सिर्फ बारुद के हाथ में है कि वह बुझेगी आग से कि सीलेगी पानी से।