यह उच्छृखंलता घुन है,
कि सभ्य-समाज की दुहाई देनेवाले,
भितरघात की तरह उसकी जड़ मत खोदो,
रिश्ते जीवन के सुलझाव के लिए हैं,
मान करो उनका,
सहजता से निभा नहीं पाते,
तो कोशिश करो, नियंत्रण के तहत,
धीमे-धीमे आदत पड़ जाएगी,
हजारों साल पहले की शुरुआत और उम्मीद
बेकार नहीं जाएगी
चचेरी-ममेरी-मौसेरी बहनें भी बहनें हैं,
घिनौना छल है राखी बंधी कलाई
देह पर रेंगती अंगुलियां
नासमझ छोटे बच्चे-बच्चियां,
फरिश्ते-से,कोरे-कोमल मन
लाचार, मजबूर कामवालियां,
बखान से घबराई सहकर्मिणियां
विश्वास से बंधे आस-पड़ोस।
लगातार दिनोंदिन, साल दर साल
चलती रहीं मनाही,सख्ती,
अलगाव की असफल कोशिशें।
फिर रिक्त स्थान, कई चोर दरवाजे,
जिसमें तराशा जाने लगा 'चुप्पी भरा गुस्सा',
रात का पर्याय रजनी की चौकठ,
भीतर चांद-तारों से टकी चांदनी,
फैंसी ड्रैसों की भरमार,
लबादों की अदला-बदली,
ड्रकुला चाहे तो पादरी बन जाए,
फिर झक सफेद सुबह।
अब सुबह कुछ ऐसी होने लगी-
लोग-बाग पत्नी से घबड़ाकर भागने लगे,
कानाफूसी करने लगे।
'बुरी संगत में फंसे' पति की निजात की कामना करने लगे,
पादरी का प्रवचन कुछ मास से जारी है,
भिक्षुणियों का चढ़ावा चोर दरवाजे से आ रहा है
पादरी की पत्नी का इतना भर अर्ज है,
कि पादरी आत्मा बदलते चोला की जगह,
पत्थर पर उगे दूब की तरह,
आसान होता जुड़ा जीवन, घर-समाज.
( सधा हुआ 'गुस्सा और चुप्पी' की तराश का विवरण आप भरोसा.ब्लॉगस्पॉट.कॉम पर देख सकते हैं।इस कविता का कर्णप्रिय पाठ जिरह.ब्लॉगस्पॉट.कॉम पर सुन सकते हैं. आशा है कि आप इस जुगलबंदी को अपनी शोध का विषय नहीं बनाएंगे.)
सभ्यता और समा़ज की जड़ का