Sunday, December 2, 2007

मां का कोना

उसकी हड्डियां बेहद कमजोर हो चुकी थीं- थोड़ा दबाब पड़ते ही टूटने की हद तक। अपनी ज़िंदगी के आखिरी आठ वर्ष वह खुद खड़ी होकर चलने में अक्षम थी। छड़ी, दीवार, कुर्सी या मेज के सहारे रेंगती हुई इधर से उधर जाती, लेकिन अंततः व्हील चेयर के सिवा कोई चारा न रहा। वह भी लंबे समय तक उनका साथ नहीं दे सकी और आखिरकार वह अपने कमरे के एक चार गुणा छह के बिस्तर पर सिमट गई।
वैसे भी इन आठ वर्षों से पहले बावन वर्षीय आठ बच्चों की मां का मध्यवर्गीय परिवार में फैलाव ही कितना था? समय बीतने के साथ मायका छूटता गया। सहेलियां तो ब्याह के साथ ही छूट गई थीं और न जाने कौन किस डोर से बंधी किस छोर पहुंच चुकी थीं। फिर बड़े होते बच्चों, बूढ़े होते बड़ों और सठियाते पति के साथ घर की जिम्मेदारियों ने मां की आवाजाही को भी कम कर दिया था। मुहल्ले-रिश्तेदारों के घर भी आना-जाना तीज-त्योहारों, मरने-जीने तक ही सिमटता गया था। अंत में घर के अंदर भी उसकी दिनचर्या आंगन-रसोई के बीच ही सिकुड़ कर रह गई। छत पर जाकर उन्मुक्त गगन को निहारने के न तो उसके संस्कार थे न ही फुरसत। दोपहर को कपड़े धोए, सूखने के लिए फैलाए और शाम को झटपट उन्हें समेटा- छत से उसका वास्ता इतना भर ही था। मन में सिर्फ रसोई और आंगन ही बसे थे।
और रसोई-आंगन का दायरा भी कितना। बच्चों, पति, बुजुर्गों तक। दूध हो या फल- पहले उन्हें ही। दाल हो या मिठाई- मां को बचने पर ही। सब्जी थोड़ी। मांस-अंडा कभी-कभी। मायका छूटा, सहेलियां छूटीं तो जीवन का संगीत कितना बनता? जब जीवन में संगीत नहीं तो गीत कैसे बनते? उस पर जेठ-ससुर का लिहाज। सो पहले-पहल गुसलखाने में गुनगुनाती रही। धीमे-धीमे गुनगुनाहट बेआवाज आंसुओं में बदलती गई। लाल डोरियाई आंखों की परवाह किसे थी। गुसलखाने में मां को काफी वक्त लग जाता था। घर के सदस्यों के कपड़े धुल जाते तो सिर्फ अपने कपड़े धोने में इतना वक्त! मां का अपना तौलिया कभी नहीं रहा कि शरीर पोछने में वक्त लगे। भींगे बालों की अर्द्धचंद्राकार धारी उसके ब्लाउज के पीछे स्थायी तौर पर बनी रहती। फिर देर की वजह?
दरअसल गुसलखाना ही मां का आख़िरी कोना था जहां वह मुस्कुराती, शरमाती, अंगुलियां चटखाती, फर्श पर पैर रगड़ती, बेआवाज़ न जाने किससे बतियाती। फिर अचानक जैसे ध्यान टूटता, और वह जल्दी-जल्दी पानी उंडेल कर निकल आती। गुसलखाने में मां का आत्मीय एकालाप खुद को बचाए रखने की एक आखिरी कोशिश था। यह कोशिश धीमी होकर कब खत्म हो गई, शायद उसे भी इसका इल्म न हो सका। बस, अब मां जल्दी से नहा कर निकल आती थी। ज्यादा देर पानी में रहने से उसकी हड्डियों में कनकनाहट शुरू होने लगी थी।
असल में मन की कनकनाहट हड्डियों तक चली आई थी। जीवन का संगीत बिखर रहा था। गीत की लय टूट रही थी। वहां अकेलेपन के अनंत पल थे। इन पलों में जीवन का विकास नहीं, जीवंतता का ह्रास छिपा था। डॉक्टर मां से कहते थे, मन मज़बूत करेंगी तो ज़रूर चल लेंगी।
लेकिन मां के मन का वजूद था कहां, जिसे वह मज़बूत करती? वह आम स्त्रियों की तरह ही थी जिनके मन पर उनके जन्मते ही बंदिशों की ज़ंजीरें लगनी शुरू हो जाती हैं और उनके मां बनते-बनते बस ज़ंजीरें ही रह जाती हैं, मन ग़ायब हो जाता है। और घर के कोल्हू में रात-दिन पिसता रह जाता है उनका शरीर। वास्तव में ऐसे ही मूक-बधिर स्त्री शरीर की कामना करते हैं हमारे ज्यादातर परिवार और उनसे बना हमारा समाज। समाज के इस आधे हिस्से की धार को कुंद करने का सिलसिला बेआवाज़ चलता रहता है। इस सिलसिले में मां, उसकी बेटी, फिर उसकी बेटी और फिर उसकी भी बेटी गुंथती चली जाती है, जिसमें अपवादों के लिए कोई जगह और प्रतिष्ठा नहीं, बल्कि उपेक्षा, अपयश, बेरहमी, एकाकीपन आदि के अंतहीन चाबुक हैं।
हालांकि अचरज ही है कि इस हिस्से की धार नदी की धार की तरह चट्टानों, पहाड़ों. पत्थरों को काटती अंधेरी सीलन भरी गुफाओं को भेदती जब तब फूट पड़ती है। आशा है कि यहां वहां निकलने, फूटने वाला झरना कभी सैलाब की शक्ल लेगा।