Saturday, October 6, 2007

जीवन के कलाकार

'बस इसी की कमी थी, लो आ गई, दू गो बिस्कुल इसको भी दे दो,' रीता जी के कहते ही महफ़िल में बैठी सभी महिलाओं का ध्यान उसकी ओर चला जाता। किसी के पेट में गुदगुदी होती, किसी के चेहरे पर मुस्कुराहट आती, किसी को तनाव से राहत मिलती। इसी के साथ वह दो बिस्किट चट कर जाती। उसे तो बस इतना ही चाहिए। और इसके साथ हमारी सोसाइटी में रहने वाली अनाथ कुतिया हमारी महफ़िल में शामिल हो जाती।
जाड़े की दोपहर में अक्सर हम महिलाएं खुले में इकट्ठा होतीं, प्यालियां खनकातीं, कुरमुरे बोलते, धूप की गुनगुनाहट में गीतों के बोल तैरते, हंसी-मज़ाक के फव्वारे छूटते। इन्हीं के बीच रीता जी दिखातीं, 'देखो-देखो तो, कैसे सटे-सटे चल रहा है मैना का जोड़ा।' सब देखते, एक छोटी सी चुप्पी टपकती, हौले से हरेक के भीतर प्रेम की सुरसुरी पसरती, इनसे बेख़बर चंचल पंछियों का जोड़ा फुर्र हो जाता। कई जोड़ी आंखें दूर तक निहारती रह जातीं कि रीता जी टोकतीं, 'लौटो रे, सबके वो अब लौटने वाले हैं, और किसको-किसको सब्ज़ी लाना है, जल्दी चलो।'
एक टोली सब्ज़ी वाले के यहां पहुंच जाती। फिर बुदबुदाते उनके बोल, 'आज सब्जी बड़ा ताज़ा लग रहा है। आज तो खूब दाम बढाकर बोलोगे। मटर कैसे... दस का डेढ़ है सब जगह, और गाजर...आठ, धत्त, पांच में कोई पूछ नहीं रहा है। अच्छा बताओ कि तराजू ठीक कराए कि नहीं। और जल्दी करो....तुम्हारा भाई नहीं दिख रहा....क्या हुआ, बीमार है, खांसी ज़ुकाम, अभी डब्बा में थोड़ा आर्युवेदिक दवा और मधु भेजते हैं। दोनों मिलाकर सुबह-शाम सप्ताह भर एक-एक चम्मच खिलाना, ठीक हो जाएगा। फट से तौलो सबकी सब्जी....दवा भेजते हैं अभी...। चलो-चलो मंदिर के रास्ते से चलते हैं।'
'क्या हाल है पंडीजी, पैर कैसा है आपका, अब दू महीना तो हो ही चला। प्लास्टर काटते ही आधा आराम हो जाएगा, आहिस्ते-आहिस्ते चलते-फिरते सब ठीक हो जाएगा...ऊ लडकिया खाना रोज़ बना रही है ना, कभी कोई ज़रूरत हो तो बेझिझक कहिएगा...। चलो-चलो रहे, तेज़ी से बढो, बिजली बत्ती जलने लगी है...।'
'इतनी जल्दी क्या है रीता जी, देखिए तो सामने से कौन आ रहा है?' 'अईँ, ई तो डॉक्टर त्रिपाठी हैं...क्या हाल है डॉक्टर साहब। बहुत दिन बाद दिखे...लीजिए, हमलोग का इलाज करते-करते खुद बीमार पड़ गए....क्या हुआ था...। ठीक है चलते हैं। चलो-चलो।'
'चलिए।' 'दू मिनट रुको।' 'हां रुक रहे हैं।' रीता जी के आग्रह पर कभी मन से कभी बेमन से हमारा रुकना होता। इस ठहराव की जगह चाहे हम महिलाओं की महफि़ल हो या सड़क। वक़्त चाहे जाड़े की दोपहर हो या गर्मी की शाम। और वजह चाहे मैना का जोड़ा हो या ब्रह्मचारी पंडीजी, सब्जी वाले का तराजू हो या डॉक्टर का स्टेथोस्कोप...सूर्यास्त की सिंदूरी लालिमा हो या किसी वृद्धा की झक सफेद साड़ी...। इन छोटे-छोटे ठहरावों में जीवन के अनंत फैलाव छुपे रहते। वजहें तो सिर्फ खिड़कियां होतीं, जिनके परे कुछ सीधे-सपाट रास्ते होते, कई ऊबड़-खाबड़ पगडंडियां होतीं, अनंत तंग गलियां होतीं...सबकी सब जीवन से लबरेज, जिन्हें चाहें तो देखें, या करें परहेज। परहेज के अपने बहाने हैं तो देखने के अपने जोखिम। और इनके बीच सधे-सधे चलने की अपनी कला।
रीता जी लेखक या कलाकार नहीं हैं। साहित्य की किताबों से भी उनका सरोकार नहीं है, लेकिन रसों के अपने झरने उनके अंदर लगातार फूटते रहते हैं। एक कलम, एक कूंची हर पल उनके हाथों में होती है। उनके शब्द जैसे कानों में संगीत घोलते हैं। कभी किसी का ख़याल रखकर, कभी किसी का हाल पूछकर, कभी हौले से छेड़कर, कभी किसी के बारे में सवाल पूछकर, वे अक्सर याद दिलाती हैं कि असली कला असली रंग, असली रस है इस तरह डूब कर जीने में।
तक़लीफें हैं उनकी ज़िंदगी में। तनाव है उनके मन में। आम तौर पर जो तक़लीफें दूसरों को तोड़तीं, जो तनाव जीवन का रस निचोड़ लेते, उनसे रीता जी बड़ी सरलता से पार पा जातीं। वे जीवन की रसिक बन जातीं। यही रसिकता उनके भीतर एक कलाकार पैदा करती जिसे किसी विधा की ज़रूरत नहीं। दरअसल जिन्हें हम लेखक या कलाकार की तरह पहचानते हैं, वे लोग जीवन के इस रोमांच से, एक तटस्थ दूरी बनाकर चलते हैं। वे अपने आवेगों को शब्दों, रंगों का मायावी जामा पहनाते, संवेदनाओं की नकली खेती करते, यश बटोरते और नामी गिरामी हो जाते हैं। मगर, कलम कूंची के ये कलाकार बिरले ही जीवन के कलाकार होते हैं। जीवन के कलाकार तो जीवन के जोखिम का सामना करने वाले होते हैं- ठेठ बोलने वाले, गंभीरता और शुद्धता के आतंक से परे, अपनत्व से लबालब, नफ़ा-नुक़सान से बेपरवाह। धूप-छांव के बीच की कड़ी, मन के चितेरे-चितेरी। अनंत खुशी के रंगों से भरी होती है इनकी कूंची। जीवन के कैनवास पर उकेरती है जीने की कला। और इस कला में माहिर हैं हमारी रीता जी। लेकिन अपने जादू से बेख़बर, और इस बेख़बरी की भी एक ख़ूबसूरती है। आप भी खोजें ये खूबसूरती, अपने-आप को ऐसे कई कलाकार मिल जाएंगे।

5 comments:

उन्मुक्त said...

ऐसे लोग हैं। अच्छा खाका खींचा है।
स्वागत है हिन्दी चिट्ठा जगत में।

Manjit Thakur said...

hi smita jee, namaskar, mai DD newss me journalist hu(correspondent) aapka blog dekha, bahot achha laga. gahe-bagahey mere blog ka bhi agar fursat ho - chakker mar lein. kuch gustakhiyan karta rehta hu.
https://www.gustakh.blogspot.com

sadar,
manjit

prasun latant said...

jeevan ke kalakar para, achcha laga

Pratyaksha said...

अच्छा लिखा ।

सुभाष नीरव said...

स्मिता जी, अपने सोचने-समझने को ब्लाग के माध्यम से साझा करके आप अच्छा काम कर रही हैं। अपनी सोच-समझ को जारी रखिये और हम सबसे ऐसे ही साझा करती रहिये। ब्लागिंग की दुनिया में आपका और आपके विचारों का स्वागत है।