Saturday, September 29, 2007

मेरे तुम्हारे सपने

हमारे मोहल्ले में रहती थीं एक निर्मला देवी। वे मां को भाभी कहतीं ,हम उन्हें बुआ। साझा था उनका और हमारे घर का आंगन, सिवाय उस नीची दीवार के जिसे हम भाई-बहन एक छलांग में पार कर जाते। याद नहीं, मैं उस आंगन में चलना सीखते, ठुमकते-कूदते-फांदते, दौड़ते या नाचते कितनी बार गिरी, छिल आई हथेलियों और घुटनों पर बुआ ने कितनी बार मरहम लगाया। न याद है मुझे बुआ की सूरत, न उनका दुलार।
मेरे जेहन में मेरे बरक्स मां उकेरती रहीं उनकी तस्वीर, उन्नीस-बीस साल की बेहद हंसमुख, दो चोटी वाली निर्मला, जिनसे छींटदार फीतों से नकली चोटी बनवाती मैं। साड़ी-सलवार-कमीज, सरारा-गरारा-कुर्ता-दुपट्टा पहनने वाली निर्मला, उनके सिले झबले-चूनदार-पफ बांहवाली फ्रॉक पहने मैं। उनकी कजरारी आंखों-सा काजल अपनी आंखों में अंजवाती मैं। रोटी सेंकती निर्मला से रोज चीनी भरकर मीठी रोटी बनवाती मैं। पढ़ती निर्मला के पास मुट्ठी में पेंसिल भरकर उल्टी कॉपी में आड़ी-तिरछी लकीरें खींचतीं मैं।.......कई-कई बार मां ने याद किया उन्हें, और हर बार उनके आंचल से मेरे बचपन को जोड़तीं। शायद मैं एक कड़ी थी जिससे मां उनकी याद को बोलती और बोलकर खुद सुनती। निर्मला की स्मृति को कहती-सुनती मेरी मां अक्सर कहीं गुम हो जाती या फिर एक लम्बी सांस के साथ झटपट काम में लग जाती।
अब एक ब्याहता हैं निर्मला देवी। लेकिन ब्याह के बाद उन्हें घर -परिवारवाले, मोहल्लेवाले, या फिर शहरवासी किसी ने नहीं देखा। जबकि ब्याही लड़कियां घूम-घूम आतीं हैं मायके। पति से रुठीं तो, सास- ननद से बाता-बाती हुई तो, तीज-त्यौहार हो तो, भाई को राखी बांधनी या बजरी खिलानी हो तो, मां बीमार है तो, पिता उदास हैं तो, गाय ने बाछी दी तो, खुद मां बनना हो तो.....बात-बात में मायका, जैसे मायका हो कुन्ती का अक्षयपात्र। पर किसी ब्याहता का यह अक्षयपात्र खो जाए तो! तो छिन जाता है उसका बचपन,उसका आंगन- उसके साथ बढ़ते पेड़ और रिश्ते, उसके सगे और सगे-से. या उसके राग-रंग- उसके युवा होते मन की तरंगें- उसकी धुकधुकी बढ़ाने वाले की झलक, अनजाने छू गई अंगुलियों पर पहले स्पर्श की खूशबू या फिर,उसके जीवन का संगीत- मां-पिता का लाड़, भाई-भावज का प्यार-तकरार, पड़ोस-मोहल्ले की लानतें-मलामतें.....। स्नेह के इतने डोर जो हों तो कितना अमीर होता है जीवन। अमीर था कुंवारी निर्मला का भी जीवन। बस निर्मला ने प्रेम के इस ताने- बाने को दिया एक विस्तार। एक फैसला लिया अपने जीवन का, अपने जीवनसाथी का। झनझनाकर टूट पड़े स्नेह के सारे डोर....स्याह हुआ सारा प्रेम-प्रकाश। अंधड़-बौछारें, छुरी-कटारें। एक प्रेम के दीये को बुझाने के लिए एक प्रेम-पुंज का विकराल झंझावात। दीया दूर चला गया झंझावात से बचते, भीषण तूफान खुद में समेटे ।
एक फैसला इतने तूफान। निर्मला जीते-जी भुला दी गईं। निर्मला के मां-पिता ने मान लिया कि इस नाम की उनकी कोई बेटी थी ही नहीं, भाई-बहनों की न थी कोई बहन, र भावजों की कैसी ननद। रिश्तेदारों- मोहल्लेवालों के लिए भागी हुई लड़की। लेकिन याद करतीं मेरी मां, एक औरत की तरह, एक औरत को एक औरत से साझा करते हुए-एक मिसाल, एक विरासत की थाती सौंपते हुए। सपने सजाओ बेटी, फैसले करो। डरो मत। माना कि समाज के बारुदी आडंबर औऱतों के फैसले को चिनगारी ठहराते हर बार, पर अपनी फितरत तय करना सिर्फ बारुद के हाथ में है कि वह बुझेगी आग से कि सीलेगी पानी से।

5 comments:

सुबोध said...

बेहतर..स्मिता जी शायद..इसलिए..एक औरत के सपनों का साझापन..कभी कभी उसके अरमानों की मौत बन जाता है..

विनीत कुमार said...

अच्छा लिखा है, एक बार स्त्रियों में दिनभर खटने के साथ-साथ फैसले लेने की भी ताकत आ जाए तो फिर देखिए कि जमाना किसका है।

आनंद प्रधान said...

Aapka blog dekhakar acha laga.Yeh to main pehale hi janasatta me padha chuka tha.Ummid hai ki aapka blog striyon ke sangharshon aur harjeet ka ek jivant dastavez hoga.Shubhkamnaye.
anand pradhan

Anonymous said...

smita ji apki ye koshish kabile tareef hai. bahut achchi shuruaat hai. ham chahenge ki ye blog khoob padha jaye aur isase stri vimarsha ko ek sachhi aawaz mile. mele paas filhal hindi font uplabdh nahi hai lekin jald hi iss kami ko door kar aapke blog par apni baat kahna chahungi. aameen !

amrita rai

tanivi said...

स्मिता जी ,
ब्लोगिग की दुनिया में आपका स्वागत है.बहुत अच्छा लिखा है। आपकी भाषा में सहज प्रवाह है .शब्दों के माध्यम से आपने बहुत सुन्दर चित्र खींचा है , जिसे देख कर मुझे भी अपने मोहल्ले की कई बुआओं,दिदियों की याद आ गयी .पुनः बधाई, उम्मीद है आगे भी अच्छी रचनाएं पढने को मिलेंगीं .